दिल्ली: श्मशान घाट से सटे शहीद भगत सिंह कैंप के लोग धुएं और गंध में रहने को मजबूर - THE PRESS TV (द प्रेस टीवी)
September 23, 2023
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दिल्ली: श्मशान घाट से सटे शहीद भगत सिंह कैंप के लोग धुएं और गंध में रहने को मजबूर

दिल्ली स्थित पश्चिम पुरी श्मशान घाट के पास स्थित शहीद भगत सिंह कैंप में तक़रीबन 900 झुग्गियां हैं, जिनमें 1500 लोग रहते हैं. यहां रहने वाले लोगों का कहना है कि पहले एक दिन में तीन-चार शवों का दाह संस्कार किया जाता था, लेकिन अब 200-250 शवों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है. इन लोगों को इससे कोविड-19 महामारी के फैलने का भी ख़तरा सता रहा है.

नई दिल्ली: पश्चिम दिल्ली के शहीद भगत सिंह कैंप में रहने वाले लोग अपने घर-बार छोड़कर गांव वापस जाने की तैयारी कर रहे हैं और इसकी वजह नजदीक के श्मशान घाट पर बड़े स्तर पर शवों का अंतिम संस्कार का होना है, जिससे इलाके में धुआं छा जाता है और बदबू का माहौल होता है.

झुग्गी कॉलोनी के निवासियों को इससे कोविड-19 महामारी के फैलने का भी खतरा सता रहा है.

लोगों का कहना है कि श्मशान घाट के इतने नजदीक रहना कभी भी आसान नहीं था, जहां पहले एक दिन में तीन-चार शवों का दाह संस्कार किया जाता था, वहीं अब करीब 200-250 शवों का अंतिम संस्कार किया जा रहा है.

इलाके में रहने वाली सरोज कहती हैं कि उनकी आंख शवों के जलने की गंध से खुलती है और वे रात में इसी स्थिति में सोती हैं.

झुग्गी कॉलोनी में करीब 900 झुग्गियां हैं, जिनमें 1500 लोग रहते हैं, जो पश्चिम पुरी श्मशान घाट से चंद मीटर की दूरी पर स्थित है.

38 वर्षीय कूड़ा उठाने वाली सरोज ने से कहा, ‘यह बहुत डरावनी स्थिति है. हम एंबुलेंसों को आते-जाते देखते रहते हैं और रात हो या दिन हो, गंध और धुआं लगातार बना रहता है.’

वह कहती हैं कि कोरोना वायरस से संक्रमित होने का खतरा भी रहता है और 24 घंटे तथा सातों दिन श्मशान घाट पर चिताओं के जलने से न दिमागी सुकून मिलता है और न नींद आती है.

14 अप्रैल की रात को स्लम कॉलोनी में आग लग गई थी, जिसमें कोई हताहत तो नहीं हुआ था, लेकिन 30 झुग्गियां जल गई थीं. इससे सरोज तथा उनके पड़ोसी उबरने की कोशिश कर रहे हैं.

सरोज का आधा घर भी इस आग में जल गया था और वह इस दर्द से उबर ही रही थीं कि कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए लॉकडाउन लगा दिया गया.

सरोज की पड़ोसी ककोली देवी कहती हैं कि 22 अप्रैल को करीब 300 शवों का दाह संस्कार किया गया है. बीते दो दिनों में 200-250 शवों का अंतिम संस्कार किया गया है. हालांकि इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है.

वह कहती हैं, ‘हमने एक ट्रक किया है और हम यह स्थान छोड़कर (उत्तर प्रदेश के) महराजगंज जिले में स्थित अपने गांव लौट जाएंगे. कम से कम हम मौत के हर वक्त के एहसास से तो बच जाएंगे.’

उन्होंने कहा, ‘हर कोई घर में बंद है. हम पंखे भी नहीं चला सकते हैं, क्योंकि हमें डर है कि कहीं हवा से कोरोना वायरस न लग जाए. माहौल खासकर बच्चों के लिए भयावह है.’

उत्तर प्रदेश और बिहार के कई अन्य लोग भी अपने गांव वापस जाने का मन बना रहे हैं. कई लोग तो पहले ही जा चुके हैं. कई निवासियों ने कहा कि पहले इतनी बुरी हालत नहीं थी, क्योंकि पहले अंतिम संस्कार श्मशान घाट के अंतिम छोर पर होता था, लेकिन दिल्ली में कोरोना वायरस के कारण मृतकों की संख्या बढ़ने के पूरे परिसर का इस्तेमाल किया जा रहा है.

उन्होंने कहा कि जब लोगों ने इसका विरोध किया तो अधिकारियों ने बताया कि ऐसा करने का सरकार का आदेश है.

सरोज तीन बच्चों समेत सात सदस्यीय परिवार के साथ रहती हैं और वह भी उत्तर प्रदेश के अपने गांव वापस जाने का मन बना रही हैं. संक्रमण के मामले बढ़ने के कारण उनका कूड़ा उठाने का काम छूट गया है.

उन्होंने कहा, ‘कुछ दिन तो हम सिर्फ पानी पीते हैं तो कुछ दिन एनजीओ के जरिये खाना मिल जाता है. स्थिति बहुत डरावनी है.’

श्मशान घाट के नजदीक रहने की वजह से कुछ लोगों का घरेलू सहायिका का काम भी छूट गया है, जो वे नजदीक के पश्चिम विहार कॉलोनी में करती थीं.

घरेलू सहायिका के तौर पर काम करने वाली 16 वर्षीय लड़की ने बताया कि उनके नियोक्ता ने उनसे काम पर नहीं आने को कहा है, क्योंकि वह श्मशान घाट के पास रहती हैं.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक उन्होंने कहा, ‘उन्हें डर है कि हम कोरोना वायरस ला सकते हैं. इसलिए हम गांव लौटना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए हमें पैसे खर्च करने पड़ेंगे. हमें गांव जाने के लिए 2,000-2,500 रुपये की आवश्यकता होगी. हम इसे कैसे वहन कर सकते हैं?’

एक अन्य 12 वर्षीय लड़की ने कहा कि कुछ के पास अपने गांव लौटने का विकल्प है, लेकिन उसके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है. उनका परिवार यहां पर दशकों से रह रहा है.

एक युवक जो पश्चिम विहार में अंशकालिक घरेलू काम करता है, ने कहा, ‘हम कहां जाएंगे? अगर हम यह छोड़ देते हैं, तो हम क्या कमाएंगे? पहले से ही हमारी कमाई इस कोरोना महामारी में बहुत कम हो गई है.’

बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संगठन चाइल्डहुड एनहांसमेंट थ्रू ट्रेनिंग एंड एक्शन (सीएचईएनए)  के एक सामाजिक कार्यकर्ता विजय कुमार ने कहा कि कई बच्चे मादक पदार्थों के सेवन करते हैं और ये शवों को ले जाने में मदद करने के लिए श्मशान के श्रमिकों द्वारा घसीटे जा रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘उन्हें कोई सुरक्षात्मक उपकरण नहीं दिया जाता और उन्हें पैसे का प्रलोभन दिया जा रहा है- जितने अधिक शवों को वे ले जा रहे हैं, उतना ही अधिक पैसा दिया जाता है. यह उनके लिए बहुत जोखिम भरा है.’

सीएचईएनए के निदेशक संजय गुप्ता ने इसके दीर्घकालिक प्रभाव को लेकर चिंतित हैं.

उन्होंने कहा, ‘पहले से ही कठिन जीवन जी रहे बच्चे, कोविड-19 रोगियों की लाशों को दिन-रात जलाते हुए देख रहे हैं. यह उनकी मानसिक स्वास्थ्य और सोच पर गहरी छाप छोड़ेगा.’

गुप्ता ने कहा, ‘इस डर के साथ बच्चों समेत अपने पूरे परिवार के साथ प्रवास के लिए तैयार हैं, क्योंकि समुदाय के लोग भी इस दाह संस्कार प्रक्रिया में शामिल हैं, जो कोरोना फैलाने का एक सक्रिय स्रोत हो सकता है.’

उन्होंने कहा कि यह लोगों के आगे आने और बच्चों की मदद करने का समय है.

उन्होंने कहा कि सरकार को शहरों के अंदर लाशों का अंतिम संस्कार करने के बजाय कहीं बाहर सीमावर्ती क्षेत्रों में व्यवस्था करनी चाहिए.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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