कोरोना की दूसरी लहर में हिमाचल के प्रवासी मज़दूरों का भविष्य फिर अनिश्चित हो गया है - THE PRESS TV (द प्रेस टीवी)
September 23, 2023
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कोरोना की दूसरी लहर में हिमाचल के प्रवासी मज़दूरों का भविष्य फिर अनिश्चित हो गया है

 हिमशी सिंह | मांशी आशर (द प्रेस टीवी)

इस पहाड़ी राज्य में काम करने वाले प्रवासी मज़दूरों को डर है कि साल 2020 में कोरोना की पहली लहर में राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान उन्होंने जो दुख और चुनौतियां झेलीं, इस बार भी वैसा ही होने वाला है.

हिमाचल प्रदेश में काम करने वाले छत्तीसगढ़ के मजदूर वापस लौटने के लिए अमृतसर स्टेशन से ट्रेन पकड़ते हुए.

(फोटो साभार: हाईवे हेल्प वालंटियर)

कोरोना की दूसरी लहर के बीच एक तरफ देश में चुनावी रैलियों में उमड़ती भीड़ नज़र आई और कुंभ मेले में लाखों श्रद्धालु बेझिझक शाही स्नान में हिस्सा ले रहे थे, तो दूसरी तरफ देश के अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से असहाय तिलमिलाते लोग, भाग-दौड़ करते स्वास्थ्यकर्मी थे.

श्मशान घाट में जलते सैंकड़ो शव और कुछ सफ़ेद चादर में लिपटे अपनी बारी का इंतज़ार करते. इन सुन्न कर देने वालीं तस्वीरों के बीच याद आते हैं पिछले वर्ष कोरोना के पहले दौर के वो चित्र, जहां अचानक प्रवासी मजदूरों का सैलाब सड़कों पर उतर आया था.

इस साल जब दूसरी लहर की चपेट में देश का मध्यम वर्ग है तो आखिर मजदूरों का क्या होगा? प्रवासी मजदूरों से जुड़ीं कुछ खबरें तो अखबारों में हैं- जैसे हिमाचल के कांगड़ा की जयसिंहपुर तहसील से प्रवासी मजदूरों के एक बस भर कर वापस बिहार जाने की और ‘कोरोना पॉजिटिव निकले पांच मजदूरों को चंबा के पांगी क्षेत्र के बस स्टैंड में आइसोलेट’ किए जाने की.

पर हिमाचल जैसे छोटे पहाड़ी राज्य में जहां बाकी देश की तुलना में प्रवासी मजदूर भी कम हैं और महामारी का फैलाव भी, वहां से ऐसी खबरें क्यों?

हिमाचल में प्रवासी मजदूर और उनकी परिस्थितियां

पहाड़ी राज्यों के बारे में यह माना जाता है कि यहां से मैदानी इलाकों की तरफ पलायन होता है. हिमाचल में बुनियादी सुविधाओ के विकास के चलते राज्य से बाहर मजबूरी में होने वाला पलायन की दर शायद पड़ोस के राज्य उत्तराखंड जैसा व्यापक नहीं है, जहां गांव के गांव खाली हैं.

हिमाचल में देखें, तो उच्च शिक्षा, शादी और रोज़गार के अवसरों के लिए यहां से लोग अधिकतर पंजाब, दिल्ली जैसे शहरों की तरफ पलायन करते आ रहे हैं. जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 1991 के बाद हिमाचल में दूसरे राज्यों से आने वाले प्रवासियों की तादाद काफी तेज़ी से बढ़ रही है.

आज प्रदेश के सोलन ज़िले का बद्दी-बरोटीवाला-नालागढ़ (बीबीएन) और सिरमौर का पांवटा साहिब- काला अंब, एशिया के औद्योगिक हब, प्रवासी मजदूरों के बलबूते चल रहे हैं.

राज्य अर्थव्यवस्था में 4,000 करोड़ का योगदान देती बागवानी नेपाली मज़दूरों के श्रम पर टिकी है. राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं, हाइवे और शहरी तथा ग्रामीण छोटे बड़े निर्माण कार्यों और सफाई कर्मचारियों में भी प्रवासी मज़दूर ही शामिल हैं.


किन्नौर में सेब के बगीचों में काम करते नेपाली मूल के कामगार. (फोटो: सुमित महार)

हिमाचल में कई ऐसे मजदूर हैं जो बहुत लंबे समय से पलायन कर यहां आएं और तबसे यहीं झुग्गी- झोपड़ी व शहरी बस्तियों में बस गए- जो आज तक भी मूलभूत सुविधाओं के हकदार न हो पाए.

इसके साथ राज्य में कार्य क्षेत्र की सुरक्षा व रहन-सहन की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है. हाइवे निर्माण में लगे नेपाल, झारखंड और बिहार के मज़दूर बहुत ही कम सुरक्षा गियर के साथ सड़क निर्माण कार्य को अंजाम देते हैं, जहां वे चट्टान गिरने, भीषण ठंड और भूस्खलन जैसे जोखिम का सामना करते हैं.

रहने के लिए इन्हीं सड़कों पर या नदी किनारे झुग्गियां डालते हैं जो असुरक्षित होती हैं- महिलाओ और बच्चों के लिए स्थितियां और जटिल होती हैं. हिमाचल कि कठिन व संवेदनशील भौगोलिक परिस्थितियों में काम करने आने वाले ये प्रवासी मज़दूर हाशिए के समुदायों से संबंध रखते हैं, जिन्हें अक्सर ‘अदृश्य’ बाहरी लोगों के रूप में देखा जाता है.

मज़दूर क्यों मजबूर

‘घर वालों ने जमापूंजी, सामान बेचकर पैसे भेजे हैं. बस का किराया बहुत ज्यादा है पर भइया घर तो जाना है, यहां कितने दिन बिना राशन-पैसे के बैठेंगे. सरकार हमारे लिए कोई व्यवस्था नही करेगी’, हिमाचल की  करसोग तहसील में फंसे एक नेपाली प्रवासी मज़दूर ने यह कहा, जब वे अपने बाकी साथियों के साथ एक निजी बस में बैठ रहे थे.

यह बस प्रति व्यक्ति 5,000 रुपये किराए पर उन्हें उत्तर प्रदेश के बहराइच रुपैड़िया में छोड़ने वाली थी, जहां से उन्हें बॉर्डर पार कर नेपाल पहुंचना था. किसी ने क़र्ज़ लिया तो किसी ने अपना सामान बेच कर किराए के पैसों का इंतजाम किया क्योंकि प्रशासन का कहना था कि अंतरराष्ट्रीय दिशानिर्देशों के अभाव में किसी भी प्रकार की सरकारी व्यवस्था करना संभव नहीं.

यह सिर्फ करसोग में फंसे नेपाली मजदूरों की व्यथा नहीं थी. शिमला की ऊंची पहाड़ियों से लेकर तराई के बद्दी औद्योगिक क्षेत्र के मजदूर पैदल निकले. सैंकड़ो प्रवासी मज़दूर जिन्हें हरियाणा बॉर्डर पर रोका गया, कुछ को क्वारंटीन किया गया तो कुछ पर लाठी चलाकर फिर बद्दी पैदल भेजा गया.

धर्मशाला के चरान खड्ड बस्ती में कई सालों से बसे मज़दूर जो आज भी सरकार से आवास की गुहार लगा रहे हैं, महामारी के बीच भी सफाई के काम में जुटे थे. दूसरी तरफ था बीबीएन क्षेत्र की जानी-मानी निजी कंपनी में कार्यरत असम की महिला श्रमिक का मामला, जिन्हें कंपनी द्वारा वापस जाने से ज़बरदस्ती रोकने की कोशिश की गई.

कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के नाम पर 24 मार्च 2020 से अचानक व अनियोजित तरीके से केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लॉकडाउन की घोषणा ने राज्य के प्रवासी मज़दूर जो वैसे भी कठिन परिस्थितियों में दयनीय जीवन जी रहे थे, की कमर तोड़ने का काम किया है.

जब केंद्र सरकार की समझ, तैयारी व समन्वय पर सवाल उठे तो दोषी के रूप में तबलीगी जमात को देश के सामने लाकर खड़ा किया- जिससे हिमाचल भी अछूता नहीं बचा. कोविड-19 से उभरे सामाजिक अंधविश्वास और सांप्रदायिकता की भावना के कारण पंडोह और बड़ौत क्षेत्रों से कश्मीरी प्रवासी श्रमिकों पर क्रूर हमलों की दो अलग घटनाओं की खबर अप्रैल 2020 में मिली.

हालांकि 2011 की जनगणना के अनुसार, प्रदेश में लगभग 3.10 लाख प्रवासी मजदूर थे- लेकिन आज एक दशक बाद यह आंकड़ा दोगुना या तिगुना हुआ होगा, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है.

राज्य के पास प्रवासी मजदूरों के आंकड़ों की  कमी के कारण राशन वितरण और अपने मूल राज्य भेजने संबंधित व्यवस्था करना मुश्किल था.

बद्दी में फसे यूपी के प्रवासी मज़दूर फईम ने तीसरे लॉकडाउन में बताया था, ‘दुकान से क़र्ज़ लेकर खा रहे हैं, ऊपर से बिजली व कमरा किराया, बीवी के दवाइयों के कारण अलग उधार लगा हुआ है. हर दिन हालात ख़राब हो रहे हैं, एक पैसा नही है जेब में.’

सरकार द्वारा राहत के नाम पर सिर्फ राशन वितरण काफ़ी नहीं था. बल्कि राशन वितरण पंचायतों, और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सक्रिय रूप से किया गया. प्रशासनिक मदद उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश के बाद अप्रैल माह से शुरू हुई.

सरकार व राज्यों पर दोहरी ज़िम्मेदारी और प्रबंधन का दबाव था. जहां सरकार ने अपने मूल निवासियों के राज्य वापस लौटने के प्रबंधन को व्यवस्थित ढंग से लागू किया, वहीं प्रवासी मज़दूरों को उनके राज्य लौटने में उतनी सक्रियता और संवेदना नहीं दिखाई. बल्कि राज्य व्यवस्था द्वारा शुरूआती दौर में लगातार प्रवासी मज़दूरों को हिमाचल में ही रुकने की सलाह दी गई.

मई के तीसरे हफ्ते से हिमाचल से लगातार श्रमिक ट्रेन चलाई गईं, जिसके लिए ऑनलाईन पंजीकरण करने की व्यवस्था के जटिल व अंग्रेजी भाषा में होने से प्रवासी मजदूरों के लिए इसका इस्तेमाल कठिन था. साथ ही अंतरराज्य स्तरीय समन्वय और साझी रणनीति की कमी के कारण जिस संख्या और गति में उन्हें वापस भेजा जा सकता था वो नही हो पाया.

आखिरकार सरकारी आंकड़ों से यही समझ आता है कि जून 2020 के अंत तक कुछ 98,000 से ज्यादा मजदूर राज्य से वापस गए- जिनमें से महज 13,000 तक श्रमिक ट्रेन से और कुछ सरकारी बस व्यवस्था से गए. बाकी अधिकतर मजदूर अपने पैसों से निजी टैक्सी आदि करके जाने पर मजबूर हुए. कितने लोग राज्य से पैदल निकले इसका कोई अनुमान लगाना मुश्किल है.

प्रवासी मजदूरों का मुद्दा दरअसल उनका मुद्दा नहीं बल्कि हमारे सामाज में जातिगत आधार पर श्रम और संसाधनों के बंटवारे का, हमारी नव उदारवादी मुनाफाखोर अर्थव्यवस्था और सत्ताधारी राजनीतिक ढांचे का मुद्दा है.

कोरोना की पहली लहर के दौरान किया गया राहत कार्य जंगल की आग बुझाने जैसा मात्र प्रतिक्रियात्मक था. वैसे मजदूरों के मुद्दे आज के नहीं लेकिन कोरोना से जन्मी स्थिति को समझते हुए व सुप्रीम कोर्ट (के देर से आए) और हाईकोर्ट के आदेशों का संज्ञान लेते हुए ख़ास योजनाओं व व्यवस्था की ज़रूरत थी, जिसमें प्रवासी मजदूरों से जुड़े आंकड़े जुटाना व एक ‘यूनिवर्सल’ दृष्टिकोण के साथ मूलभूत सुविधाएं और आवास से जुड़ी व्यवस्था को मज़बूत करने की पहल की जा सकती थी.

मौजूदा श्रम कानूनों को ढीला करने के बजाय उन्हें सशक्त करने और पहली लहर से ही चरमराती हुई स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर किया जा सकता था. पर केंद्र सरकार तो पर्यावरण, खेती-किसानों, श्रमिकों से जुड़े कानूनों को बदलने में व्यस्त थी और केंद्र स्वास्थ्य मंत्री बाबाओं की दवाइयों का प्रचार करने में.

जहां एक तरफ जॉर्डन के स्वास्थ्य मंत्री ने ऑक्सीजन की कमी से हुई छह लोगों की मौत पर अपना इस्तीफा दे दिया, वहीं पिछले कुछ दिनों में जलीं हज़ारों चिताओं पर मौन बैठी है केंद्र सरकार!

कोरोना वायरस की पहली लहर में हिमाचल प्रदेश कई राज्यों की तुलना में फिर भी बेहतर स्थिति में रहा. एक छोटे, सीमांत, अधिकतर पहाड़ी और ग्रामीण राज्य होने के कुछ फायदे हैं. कुछ ऐतिहासिक प्रयास भी हिमाचल में शुरूआती दशकों में हुए हैं, जिनको नकारा नहीं जा सकता.

पर कुछ संवेदनशील अधिकारियों की मौजूदगी मात्र काफ़ी नहीं. महामारी के पहले दौर में प्रवासी मजदूरों की व्यथा ने व्यवस्थागत और नीतिगत कमियों पर रोशनी डाली.

ऐसे में इन पर चिंतन ही आगे की राह तय करेगा. इतना तो हम समझ चुके हैं कि संकट की यह घड़ी छवि को नहीं बल्कि जनहित में व्यवस्था को संभालने और सुधारने की है.

(यह लेख ‘आधुनिक हिमाचल के अदृश्य निर्माता’ रिपोर्ट के आधार पर लिखा है जो हिमाचल प्रदेश वर्कर्स सॉलिडेरिटी (HPWS) द्वारा सितंबर, 2020 में प्रकाशित की गई थी. दोनों लेखक इस संगठन के सदस्य हैं.)

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